यह पोस्ट ‘Hindi Kavita‘ प्यार भरी , वीर रस की , प्रेरक , भावात्मक इत्यादि प्रकार के कविताओ का एक संग्रह है | इस पोस्ट में लिखे कविताओ में आपको में वह संतुष्टि मिलेगी जिसके लिए आप इस वेबसाइट पर आये है | हमे उम्मीद है की आप इन्हें पढ़कर अच्छा महसूस करेंगे –
विविध हिंदी कविताओ का संग्रह- Kavita in Hindi

चलने का हौसला नहीं रुकना मुहाल कर दिया
इश्क़ के इस सफ़र ने तो मुझ को निढाल कर दिया
मिलते हुए दिलों के बीच और था फ़ैसला कोई
उस ने मगर बिछड़ते वक़्त और सवाल कर दिया
मुमकिना फ़ैसलों में एक हिज्र का फ़ैसला भी था
हम ने तो एक बात की उस ने कमाल कर दिया
चेहरा ओ नाम एक साथ आज न याद आ सके
वक़्त ने किस शबीह को ख़्वाब ओ ख़याल कर दिया
मुद्दतों बा’द उस ने आज मुझ से कोई गिला किया
मंसब-ए-दिलबरी पे क्या मुझ को बहाल कर दिया
~शाकिर परवीन
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।। जिंदगी ।।
कोई बात होगी जो
तुमने किनारा काट लिया
हमने तो सोचा था कि
आना फिलवक्त के लिए टाल दिया
कोई बात होगी जो
सरे राह मुंह मोड़ लिया
मंजिल की बात थी और
सरे राह भटकता छोड़ दिया
मैंने जिंदगी बहुत सजाई थी
बंदगी के लिए
तुम्हारी सादगी पर
प्यार जताना ही भूल गया
तुमने जिंदगी के चाहत की जो
राह सुझाई थी
मैंने राह याद रखा
जिंदगी ही भूल गया
मैं तो अकेला ही चला था
मंजिल के लिए
तुम्हारा साथ मिला तो
मंजिल ही भूल गया
जिंदगी तू बहुत मेहरबान है
हमपर जानिब
कि तेरी मेहरबानी से जो पाया
खुद को खोकर पाया
मैंने कई बार तुझको
खुशनसीबी का तोहफा देना चाहा
हर बार पर हंसते हुए
तुमने वह लौटा ही दिया
—शीलकांत पाठक
भस्मीभूत होता यह देह कह रहा हैं,
आत्मा अमर रहेगी अंत तो देह का हो रहा हैं,
मृत्यु के आलिंगन से, जीवन का अंत हो रहा हैं,
मृत्यु शैय्या पर विराज के, सत्य समझ आ रहा हैं,
मौत अंत और ये जीवन जो जीवित लगता हैं,
भस्म होता देह अब भ्रम से उभर रहा हैं,
सत्य में जो जीवन अब मृत हो रहा हैं,
मौत का घटित होना तो हर क्षण हो रहा हैं,
एक-एक कर जब श्वास कम होती जा रही हैं,
मृत्यु की ओर अग्रसर हर क्षण “देह” हो रही हैं,
जीवन का जीवंत होना जन्म में ही रहा हैं,
उसके बाद तो हर क्षण मौत को ही जिया जा रहा हैं,
मृत्यु तो तुम्हारे भीतर घटित होती रही हैं,
प्रतिपल हर क्षण, देह मृत हो रही हैं,
हम जो ये मृत्यु ढोता जीवन जीते हैंं,
पूछती हैं भस्म कि अब बताओ मुझे??
यदी ये जीवन पवित्र हैं तो मृत्यु अपवित्र कैसे हैं??
जीवन तो आधार हैं,मृत्यु ही तो सत्य हैं,
तो फिर सत्य कैसे अपवित्र हैं???
–Divya saxena
पिता के सशक्त सहारे का, उनके उसी भरोसे का,कुछ कर्ज चुकाना बाकी है|
कंधो पे है जिम्मेदारी अभी जीवन जीना बाकी है ||
माॅ के हातो की रोटी का, उनकी तिखी तरकारी का,कुछ कर्ज चुकाना बाकी है|
कंधो पे है जिम्मेदारी अभी जीवन जीना बाकी है ||
बहन के गुडिया गुड्डे का, उसकी राखी के डोरी का,कुछ कर्ज चुकाना बाकी है|
कंधो पे है जिम्मेदारी अभी जीवन जीना बाकी है ||
भाई के खेल खीलौनो का, उसके संभाले सभ झमेलो का,कुछ कर्ज चुकाना बाकी है|
कंधो पे है जिम्मेदारी अभी जीवन जीना बाकी है ||
समाज की जिम्मेदारी का, उनके दिये संम्मानो का,कुछ कर्ज चुकाना बाकी है|
कंधो पे है जिम्मेदारी अभी जीवन जीना बाकी है ||
जीवन के सभी संघर्षो का, उनसे खाई ठोकर का,कुछ कर्ज चुकाना बाकी है|
कंधो पे है जिम्मेदारी अभी जीवन जीना बाकी है ||
साहस फिर से बढ़ता है परिंदो का,
अक्सर आँधियों के चले जाने के बाद।
पुनः निर्माण से सजाते है घोंसले अपने,
उन आँधियों से ठोकर खाने के बाद।।
Hindi mein kavita

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सिसक रही है अच्छाई
लेकर अपनी सच्चाई
संभल ज़रा ऐ दिल ,उनकी-
बातों में है चिकनाई
मैं नादाँ हूँ क्या जानूँ
ऐ दिल तेरी दानाई
बैठेगें कैसे दिल में
लेकर इतनी चतुराई
बाँध के पट्टी आँखों पर
देख रही है बीनाई
गोरख- धंधों को देखा
गाते अक्सर चौपाई
माटी तेरी भी इक दिन
मिट जाएगी प्रभुताई
मिल जाएगा वो मुझको
जो चाहेंगे रघुराई
डॉ सीमा विजयवर्गीय
क़ुर्बतें नहीं रक्खीं फ़ासला नहीं रक्खा..
एक बार बिछड़े तो राब्ता नहीं रक्खा..!
इतना तो समझते थे हम भी उस की मजबूरी..
इंतिज़ार था लेकिन दर खुला नहीं रक्खा..!
हम को अपने बारे में ख़ुश-गुमानियाँ क्यूँ हों..
हम ने रू-ब-रू अपने आईना नहीं रक्खा..!!
जब पता चला इस में सिर्फ़ ख़ून जलता है..
उस के ब’अद सोचों का सिलसिला नहीं रक्खा..!
हर दफ़ा वही चेहरे बारहा वही बातें..
इन पुरानी यादों में कुछ नया नहीं रखा..!
अपने अपने रस्ते पर सब निकल गए इक दिन..
साथ चलने वालों ने हौसला नहीं रक्खा..!!
जब हवा के रुख़ पर ही कश्तियों को बहना था.. तुम ने बादबानों को क्यूँ खुला नहीं रक्खा..!
हम को अपने बारे में हर्फ़ हर्फ़ लिखना था..
दास्तान लम्बी थी हाशिया नहीं रक्खा..!!
मैं हर बार गिरा और सम्भलता रहा,
दौर खुदा की रहमतों का चलता रहा,
वक़्त भले ही मेरे विपरीत था,
मैं ना जरा सा भी भयभीत था,
मुझे यकीं था की एक दिन सूरज जरूर निकलेगा,
क्या हुआ जो वो हर रोज ढलता रहा,
मैं हर बार गिरा और सम्भलता रहा,
जब भी हुआ है दीपक में तेल खत्म,
तो समझो हो गया खेल खत्म,
निचोड़ कर खून रगों का इसमें,
मैं एक दीपक की भाँति जलता रहा,
मैं हर बार गिरा और सम्भलता रहा,
झिलमिल से ख्वाब थे इन निगाहों में,
करता रहा महनत माँ की दुआओं में,
सींचता रहा परिश्रम के पौधे को दिन रात,
और ये पौधा सफलता के पेड़ में बदलता रहा,
मैं हर बार गिरा और सम्भलता रहा,
ये सब तुम्हारी सबकी दुआओं का असर है,
जो मिली आज इतनी सुहानी डगर है,
तह दिल से शुक्रिया मेरे चाहने वालों,
आज मेरी किस्मत का सिक्का उछलता रहा,
मैं हर बार गिरा और सम्भलता रहा,
दौर खुदा की रहमतों का चलता रहा।
मुझको अपना अक्स दिखा दे
साँसों को आकर महका दे
नाच रहा अपनी जिस धुन में
मुझको भी रक़्क़ास नचा दे
मेरे हाथों में भी मेहँदी
ओ मेरे अक़्क़ास रचा दे
काजल,टीका,बिंदी,चूनर
पास बिठाकर मुझे सजा दे
कजली, चैती या मलहारें
जो भी चाहे राग सुना दे
क्यों इतना बेचैन दिखे तू
मुझको अपना हाल बता दे
अपनी नाज़ुक उँगली से तू
फिर से दिल के तार बजा दे
हर पल तुझसे मीठा बोलूँ
मुझको वो अल्फ़ाज़ सिखा दे
रक़्क़ास-नर्तक,
अक़्क़ास-चित्रकार,
डॉ सीमा विजयवर्गीय
।। …न मिला ।।
मैंने चिड़िया सा उड़ना चाहा
आकाश न मिला
मैंने बीज सा उगना चाहा
जमीं न मिली
मैंने घास पर लेटना चाहा
फ़ुरसत न मिली
मैंने किसी की आंख में झांकना चाहा
जहां से पूरा आसमान दिखे
ऐसा कोई झरोखा न मिला
मैंने सपनों की दुनिया में जीना चाहा
जिंदगी पर सोती ही रही
मैंने खुशी खरीदनी चाही
दुख ने मुझे ठग लिया
मैंने खुद को भूलना चाहा
पीड़ाएं बार-बार याद दिलाती रहीं
मैंने खुद की खुदी को निछावर करना चाहा
खुदा न मिला !
—शीलकांत पाठक
जन्म लिया जहाँ मैंने
जहाँ पली बढ़ी हुई
वहाँ की धूप वहाँ की
हवा अब तो जैसे पहेली हुई
जिन सखियों संग खेला मैंने
जिनसे नोक-झोंक हुई
वो सखियां वो गुड़िया
अब आँखों से ओझल हुई
जिन पगडंडियों पे
दौड़-भागकर पाँव धूल-धूसरित हुईं
वो राहें अब टूट कर चौड़ी सी सडक़ हुईं
अपने घर ही जाने पर मन मे
बड़ी हिचक हुई
छोटी सी अलमारी मेरी
खिलौने का शोकेस हुई।।

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शुभसंध्या संदेश
कौन समझाए उन्हें इतनी जलन ठीक नहीं,
जो ये कहते हैं मेरा चाल-चलन ठीक नहीं।
जलो वहा, जहाँ उजाले की जरूरत हो,
उजालो में चिरागों की तपन ठीक नहीं।
झूठ को सच में बदलना भी हुनर है लेकिन,
अपने ऐबों को छुपाने का ये फन ठीक नहीं।
उनकी नीयत में ख़लल है तो घर से ना निकलें,
तेज़ बारिश में ये मिट्टी का बदन ठीक नहीं।
शौक़ से छोड़ के जाएँ ये चमन वो पंछी,
जिनको लगता है ये अपना वतन ठीक नहीं।
हर गली चुप सी रहे, और रहें सन्नाटे,
मेरे इस मुल्क में ऐसा भी अमन ठीक नहीं।
जो लिबासों को बदलने का शौक़ रखते थे,
आखरी वक़्त ना कह पाए क़फ़न ठीक नहीं।।
समस्त शिविरों को मैं सौभद्र प्रणाम करता हूं
आज मग्न अश्रुओं से यह अंतिम काम करता हूं ।।
अठखेलियाँ हुईं बहुत माता के आँचल में
सुबह के सूर्य को अब मैं पिता के नाम करता हूं ।।
उत्तरा के प्रश्नों के उत्तर ना दे पाऊं
पहर जब यह विषेश ना लौट कर आए मैं डरता हूं ।।
रचा यह रक्त के धागों से कुरूक्षेत्र जीवन का
बाल से सिंह हो जाऊं इस व्यूह में गर भय-हीन लड़ता हूं ।।
महारंभ हो संहार लीला जब आर्यपुत्रों की
नत-मस्तक स्वयं शिव हो जाएं ऐसी मृत्यु वरता हूं ।।
प्रतीक्षा में खड़ा था भूमी का जो खंड रात में
उठा कर शीश अपना, प्रणाम उसका स्वीकार करता हूं ।।
समस्त शिविरों को मैं सौभद्र प्रणाम करता हूं
आज मग्न अश्रुओं से यह अंतिम काम करता हूं ।।
(अभिमन्यू की मृत्यु के बाद समय कैसे उसे श्रद्धांजली देता है )
अर्जुन भी हूं, कृष्ण हूं, मैं ही सुभद्रा हूं
परंतु शौर्य गान अभिमन्यू का ही सदैव करता हूं ।।
पहिया काठ का उस महायोद्धा ने था जैसे उठा लिया
मैं ब्रह्मास्त्र हूं पर लज्जा से हर क्षण ही मरता हूं ।।
धरा पर जब गिरा था कृष्ण का वो शिष्य तेजस्वी
मैं नंगे पाँव था दौड़ा सोच इसे झोली में भरता हूं ।।
महाभारत कि यह गाथा जब जाए शिला पर लिखी
छुए थे द्रोण ने भी पाँव उस के, स्वर्णाक्षरों में गढ़ता हूं ।।
समस्त शिविरों को मैं विजयी प्रणाम करता हूं
आज मग्न अश्रुओं से यह अंतिम काम करता हूं ।।
-अंकित पराशर
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